आत्मचिन्तन को मजबूर हर राजनीतिक दल….? – ओमप्रकाश मेहता
यद्यपि अभी अगले लोकसभा चुनावों में लगभग बीस महीनों की देरी है, इससे पहले देश में करीब डेढ़ दर्जन राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होना है, किंतु देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी सहित सभी राजनीतिक दल अभी से सतर्क और सचेत हो गए है, सत्तारूढ़ भाजपा सहित कुछ दलों ने पिछले चार वर्षों के अपने कार्यों पर जहां आत्मचिंतन शुरू कर दिया है, वहीं प्रमुख प्रतिपक्षी दल कांग्रेस सहित कुछ दलों ने तो जन समर्थन जुटाने के प्रयास भी शुरू कर दिये है, प्रतिपक्षी दलों के एक घड़े ने तो अभी प्रतिपक्षी दलों को एकजुट होकर “मोदी की आँधी” का सामना करने की कोशिशें भी शुरू कर दी है, इस घड़े के अगुवा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार है जो 2024 के बाद की सुनहरी संभावनाओं को अपने में समेटे हुए है। यद्यपि पिछले साढ़े आठ सालों से देश पर राजकर रही भारतीय जनता पार्टी फिलहाल इतनी सहज दिखाई नहीं दे रही जितनी कि वह 2019 के चुनावों के पूर्व परिलक्षित हो रही थी, इसकी मुख्य वजह हाल ही में पार्टी द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के नतीजों से निराशा है, इन नतीजों में यह सामने आया है कि पांच साल पूर्व मोदी जी के नेतृत्व में ‘महाजीत’ की जो “सुनिश्चितता” थी, वह आज काफी प्रतिशत कम हो गई है, क्योंकि पिछले साढ़े आठ सालों में यह सरकार जनविश्वास में इजाफा नहीं कर पाई, बल्कि जनविश्वास के प्रतिशत में काफी कमी परिलक्षित हुई है, किंतु इसके बावजूद भाजपा अपनी पुनः महाविजय के प्रति आश्वस्त इसलिए है क्योंकि फिलहाल उससे मुकाबले के लिए कोई सशक्त प्रतिपक्षी दल मैदान में नही है, कांग्रेस सहित सभी प्रतिपक्षी दल अपनी-अपनी जुगाड़ में व्यस्त है। जहां तक कांग्रेस के अलावा अन्य प्रतिपक्षी दलों का सवाल है उसके नेता अपनी जमीन बचाने के बजाए, भविष्य के सुनहरें सपनों में खोये है, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी जहां प्रतिपक्ष को एकजुट करने में जुटे है, वहीं दिल्ली की आप पार्टीके अरविंद केजरीवाल तथा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी अपनी-अपनी जुगाड़ में अपनी साख बचाने में जुट है, ये सभी अपने आपको भावी प्रधानमंत्री मानकर चल रहे है।
इस बार चुनावों के बीस माह पूर्व की सबसे खास और अहम् बात यही है कि इस बार भाजपा अपने तीसरे कार्यकाल के लिए उतनी आश्वस्त व निश्चिंत दिखाई नहीं दे रही, जितनी की वह 2019 के चुनावों के पूर्व दिखाई दे रही थी, अब वह जाहिरतौर पर तो नहीं किंतु मन ही मन यह भी स्वीकारने लगी है कि मोदी जी के नेतृत्व की ‘चमक’ में पहले की अपेक्षा अब कुछ कमी आई है, इसका कारण वह मोदी सरकार के कुछ विवादिल फैसले और आम वोटर की उपेक्षा स्वीकार करती है, किंतु वह इस सच्चाई को लेकर आश्वस्त है कि फिलहाल भाजपा के सामने बिखरे विपक्ष की कोई चुनौती नहीं है और भाजपा का पूरा प्रयास होगा कि प्रतिपक्षी दल कभी भी किसी के भी नेतृत्व में एकजुट नहीं हो पाए और जब चुनावों तक प्रतिपक्ष बिखरा रहेगा तो भाजपा को फिर कोई खतरा नही है। हाँ…. वह अब भविष्य में लिए जाने वाले सरकारी व संगठनात्मक फैसलों के प्रति अवश्य सतर्क हो गई है…. और इसीलिए वह अभी से पूरी तरह चुनावी ‘मूड’ और ‘मोड’ दोनों में आई है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि प्रतिपक्ष तथा समय की इतनी चुनौतियों के बावजूद भाजपा ने अपने “चक्रवर्ती” बनने के प्रयासों में कोई कमी नहीं की है, देश के सभी राज्यों में अपनी सरकार गठित करने के उसके प्रयास जारी है, इसीलिए अब उसने दक्षिण भारत की ओर रूख किया है, वह मानती है कि “मोदी है तो यह भी मुमकिन है”, क्योंकि देश के दक्षिणी राज्यों में भी मोदी की लोकप्रियता कम नहीं हैं? वैसे यह भी यथार्थ है कि भाजपा ने अब “वादों” पर विश्वास करना कम कर दिया है, इसकी अपेक्षा उसने अपनी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करने का प्रयास किया है, जिससे आम वोटर उस पर पूरी तरह विश्वास कर सके और भाजपा ने अब यह बताना भी शुरू कर दिया है कि उसे जो देश में बहुमत के साथ सत्ता का मौका मिला है वह चुनावी वादों या उनकी पूर्ति से नहीं बल्कि प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने से मिला है, वह इसी प्रतिबद्धता को आगे बढ़ाकर अगला “रण” जीतना चाहती है और इसी के बलबुते पर उत्तर भारत के बाद दक्षिण भारत की 129 सीटों पर फतह करना चाहती है।
कुल मिलाकर यदि यह कहा जाए कि भाजपा अगले चुनावों को लेकर न सिर्फ सजग, सचेत व गंभीर है बल्कि वह किसी भी स्थिति में अगली चुनौती पर फतह हासिल करना चाहती है।