तपन में वातानुकूलन थे ! – दिवंगत सुब्रत राय
के. विक्रम राव Twitter ID: @Kvikramrao
हम बुद्धिकर्मियों हेतु मीडिया स्वामियों के जगत में दिवंगत सुब्रत राय एक धूमकेतु के मानिंद थे। एकदम भिन्न अलामत वाले। उनकी अपनी पहचान रही। बजाय वंशानुगत, कौटुंबिक उद्योगपति के, वे एक स्वयंभू उद्यमी थे। प्रथम पीढ़ी के पूंजीपति, मगर खुद को कहते थे प्रबंधकर्मी। नया विशेषण था। हम श्रमजीवियों की नजरिये से परिभाषा ही तनिक अलग थी। सुब्रत राय से जुड़ी मेरी कई यादें हैं। खट्टी-मीठी। मगर यह उल्लेख केवल मधुर स्मृतियों का है। कारण ! कभी लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य में मेरा साबका पड़ा था लातिन की उक्ति से : “डे मोर्टुइस निल निसी बोनम।” मायने हैं : “दिवंगत के लिए केवल नीक बातें बोलें।” क्योंकि वह व्यक्ति अब खुद का बचाव नहीं कर सकता है। अतः ऐसी हरकत अमानुषिक होगी। सामाजिक औचित्य के प्रतिकूल भी।
मेरा पहला संपर्क सुब्रत राय से हुआ एक श्रमजीवी के नाते। स्थान था लखनऊ का अमौसी हवाई अड्डा। मजदूर पुरोधा साथी उमाशंकर मिश्र और साथी शिवगोपाल मिश्र के साथ मैं स्व. उमरावमल पुरोहित को लेने गया था। पुरोहितजी हिंद मजदूर सभा के महासचिव और ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन के अध्यक्ष थे। वे हमारे समाचारपत्र कर्मियों के राष्ट्रीय कान्फेडरेशन के अध्यक्ष भी रहे। उसी जहाज से सुब्रत राय भी उतरे। मजदूरों का हुजूम उन्होंने देखा। उस दौर में स्थानीय दैनिकों में हमारी कार्मिक यूनियन बड़ी सबल तथा व्यापक होती थी। सुब्रत राय ने स्पष्ट कर दिया था कि वे सहारा संस्थान में कोई भी यूनियन नहीं स्वीकारेंगे। उनका तर्क था वहां सभी कर्मी हैं, अतः वर्गीकरण क्यों ? उन्होंने कहीं अधिक सुविधाएं भी दी थीं अपने कर्मियों को। मसलन उस वक्त लखनऊ के तपते और शीतकालीन मौसमों में राष्ट्रीय सहारा कार्यालय वातानुकूलित रहता था। बाकी मुनाफाखोर प्रकाशकों के संस्थानों में पंखे तले ही काम चलता था। बाद में सुधार आया। सुब्रत राय का पहला मीडिया प्रयोग था साप्ताहिक “शाने-सहारा” जो सुंदरबाग में था। वेतन विवाद उठा। सरलता से सुब्रत राय ने समझौता किया। साथी उमाशंकर मिश्र बताते हैं कि तीन गुना मुआवजा दिया। ग्रेच्युटी मिलाकर।
मीडियाकर्मियों पर उनकी सोच अत्यंत गौरतलब रही। वे समाचार को दो शीर्षकों में बाटते थे : मनचाही और अनचाही। अर्थात पाठक को हर प्रकार की भली सूचनायें देने में ही प्राथमिकता हो। टीवी-क्षेत्र में भी उनका प्रयास रहा। वे “खटाखट खबरों” पर बल देते रहे। खटाखट मतलब शीर्षकों और सूक्तियों में समाचार दें। दूसरे शब्दों में यह न्यूज़ फ्लैश था। वे मांग करते थे कि हर खबर में आंकड़े हों। तभी अधिक प्रमाणिकता आती है। “क्या” के बजाय “क्यों” समाचार पर उनका महत्व रहता था। उनका सुझाव था कि पांच हेडिंग बनाओ। फिर उनमें से श्रेष्ठ को चुनो। शब्दों में अश्लीलता बर्दाश्त नहीं थी। मसलन मुहावरा “चूना लगाना” वर्जित था।
कांग्रेसी पीवी नरसिम्हा राव और उनके वित्त मंत्री (बड़े बाबू रहे) सरदार मनमोहन सिंह) ने आर्थिक उदारीकरण का युग चलाया। यह सुब्रत राय की ही सोच का फल था कि सहारा में सिलसिलेवार आर्थिक समीक्षाएं प्रकाशित होती रहीं। बाद में उनका संकलन एक किताब के रूप में छपा। नाम था “भारत गुलामी ओर।” इस पर चर्चा भी हमारे इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (IFWJ) की राष्ट्रीय परिषद कि बैठक में हरिद्वार के जयराम आश्रम में हुई थी। सार्वजनिक जिज्ञासा तब कांग्रेस शासन की नई अर्थनीति पर बढ़ी भी थी।
उस दौर में लखनऊ में अखबारी आजादी पर एक अवांछित प्रहार का वाकया हुआ था। कपूरथला रोड पर स्थित दैनिक सहारा के कार्यालय में अचानक यूपी पुलिस घुस आयी। मीडिया समाज में हड़कंप मच गया था। केवल इंदिरा गांधी के इमरजेंसी काल में दिल्ली के बहादुरशाह मार्ग पर निर्मित समाचारपत्रों की बिजली काटना, छापामारी, धर पकड़ आदि होती थी। यूपी के भाजपायी मुख्यमंत्री थे लोध राजपूत कल्याण सिंह। हमारे IFWJ की ओर से इस पुलिसिया हरकत पर भर्त्सना करते राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाते मेरा बयान प्रसारित हुआ। काफी लोग चकित थे। श्रमिक यूनियन वाला व्यक्ति एक मालिक के पक्ष में ? मुख्यमंत्री का फोन आया। थे मित्रवत, मगर क्षुब्ध। मेरा जवाब सीधा और सरल था : “आपकी पुलिस इतनी निरक्षर, अज्ञानी है कि संपादकीय कार्यालय और व्यावसायिक विभाग में अंतर नहीं कर सकी ? भारतीय संविधान की धारा (19 : अभिव्यक्ति) के कुछ अर्थ हैं, मान्यता हैं।” कल्याण सिंह ने उत्पीड़कों की खबर ली। हालांकि समूचा हादसा टाला जा सकता था। एक भिन्न अवसर आया था। लखनऊ से लोकसभायी निर्वाचन हो रहा था। भाजपा के अटल बिहारी वाजपेई प्रत्याशी थे। तब लालजी टंडन चुनाव अभियान के प्रमुख थे। सभा में मैं भी आमंत्रित था। दीर्घा में सुब्रत राय जी से भेंट हुई थी। वे उत्साही समर्थक थे। तब इससे उनके और अटल जी के बीच कई भ्रांतियां दूर हो गईं, क्योंकि पिछले मतदान (1996) में वे फिल्म स्टार राज बब्बर के वे पक्षधर रहे। भाजपा के विरुद्ध। उनकी सोच में बदलाव स्पष्ट गोचर था। आखिर प्रधानमंत्री से बेहतर और महत्वपूर्ण प्रत्याशी कौन हो सकता था ? मगर कल्याण सिंह जी तब अटल जी से रूष्ट हो गए थे, क्योंकि प्रधानमंत्री ने सहारा के उत्सववाला निमंत्रण स्वीकारा और शामिल हुए थे।
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