चण्डीगढ़ मेयर चुनाव में गंभीर लोचा : पार्षदों को वोट डालना नहीं आता, इसलिए उनके वोट रद्द हुए – बीजेपी
—अब बात ईवीएम और बैलेट पेपर से आगे जा चुकी है ।
आप ने इस चुनाव को पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में चुनौती दी है। जहां इस पर बुधवार, 31 जनवरी को सुनवाई होगी।
Sanghol Times/चंडीगढ़/30.01.2024 –
चण्डीगढ़ मेयर चुनाव में गंभीर लोचा – जानते है क्या है मामला
चंडीगढ़ नगर निगम के मेयर के चुनाव में इंडिया गठबंधन (आप+कांग्रेस) के साझा उम्मीदवार को 20 वोट मिले लेकिन उसमें से 8 वोट अवैध घोषित कर निरस्त कर दिए गए और इस प्रकार कुल 16 वोट पाकर भी बीजेपी के उम्मीदवार मनोज सोनकर जीत गए।
यहां चुनाव बैलेट पेपर से हुए थे और इसमें जनता द्वारा सीधा चुनाव भी नहीं होता। पार्षद और स्थानीय सांसद ही वोट डालते हैं। तब भी इतना बड़ा खेल हो गया। बीजेपी की तरफ से कहा जा रहा है कि इन पार्षदों को वोट डालना नहीं आता, इसलिए उनके वोट रद्द हुए। हालांकि यह बात कुछ हजम नहीं होती। जिन पार्षदों ने अपने लंबे-चौड़े पर्चे भरकर अपना चुनाव जीत लिया, वे अपना एक वोट डालना नहीं जानते या फिर सच्चाई कुछ और है।
चंडीगढ़ नगर निगम में कुल 35 पार्षद हैं और एक स्थानीय सांसद का वोट होता है। यानी कुल 36 वोट होते हैं जिनमें बहुमत का आंकड़ा 19 है।
बीजेपी के पास यहां कुल 14 पार्षद हैं। यहां की स्थानीय सांसद बीजेपी की किरण खेर हैं। इसलिए यह एक और वोट मिला लिया जाए तो भी कुल 15 वोट होते हैं। एक पार्षद अकाली दल का है। कहा जा रहा है कि उसका वोट भी बीजेपी के उम्मीदवार को मिला। इस तरह कुल 16 वोट होते हैं।
दूसरी तरफ़ यहां आम आदमी पार्टी के 13 पार्षद हैं। 7 पार्षद कांग्रेस हैं। इनका सीधा जोड़ 20 होता है। यानी बहुमत से भी एक ज़्यादा। लेकिन चुनाव में खेला हो गया और इन 20 वोटों में से 8 रद्द कर दिए गए। इस तरह आप और कांग्रेस के साझा उम्मीदवार कुलदीप कुमार के खाते में कुल 12 वोट गिने गए और वे हार गए। 16 वोट पाकर बीजेपी उम्मीदवार जीत गए, क्योंकि 36 में से 8 वोट रद्द होने पर कुल बचे 28 वोटों में बहुमत का आंकड़ा बनता था 15 ।
आप ने इसे सरासर बेईमानी बताया है और देशद्रोह की संज्ञा दी है। आरोप है कि पीठासीन अधिकारी ने गिनती के दौरान डाले गए वोटों में गड़बड़ कर उन्हें रद्द किया।
आप ने इस चुनाव को पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में चुनौती दी है। जहां इस पर बुधवार, 31 जनवरी को सुनवाई होगी।
अब आते हैं मूल सवाल पर। ईवीएम को लेकर काफ़ी शोर मचाया जा चुका है। ईवीएम पर शक होने पर वीवीपैट की बात हुई। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ईवीएम को लेकर तो संदेह कम था, क्योंकि वह केवल अकेला डिवाइस था और किसी इंटरनेट से नहीं जुड़ा था लेकिन अब वीवीपैट के जुड़ने से वाकई गंभीर सवाल सामने आए हैं। इसके हल के लिए सौ फीसदी या ज़्यादा से ज़्यादा वीवीपैट की पर्चियों के मिलान का सुझाव दिया गया। लेकिन अब इन पर्चियों के खेल को लेकर कई सवाल उठे हैं। ऐसे में बैलेट पेपर की वापसी की वकालत की जाने लगी है। हालांकि राजनीतिक दलों ने इसे लेकर कभी गंभीर बहस नहीं छेड़ी न ही कोई आंदोलन किया।
लेकिन चंडीगढ़ चुनाव के नतीजे बताते हैं कि अब बात ईवीएम और बैलेट पेपर से आगे पहुंच गई है। जब इतने छोटे से चुनाव में इतना बड़ा खेल हो सकता है तो लाखों वोटर्स वाली लोकसभा या विधानसभा में क्या नहीं हो सकता। इसी बात को आज आप के अध्यक्ष और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उठाया गंभीर सवाल ।
हालांकि इसके उलट यह तर्क भी दिया जा रहा है कि छोटे चुनाव में ऐसी हेरफेर आसान है लेकिन बड़े चुनाव में यह संभव नहीं।
लेकिन हमारा कहना है कि अब सब कुछ संभव है। तो फिर ईवीएम भी नहीं, और बैलेट पेपर नहीं तो और क्या विकल्प हो सकता है चुनाव का। यह गंभीर सवाल है। हालांकि अब चुनाव का भी ज़्यादा मतलब बचा नहीं है। जब चुनी हुई सरकारों को ही ख़रीद-फ़रोख़्त कर, एजेंसियों का दुरुपयोग कर किसी न किसी तरह गिराया जा रहा है । यह माना जा रहा है।
लेकिन फिलहाल चुनावी लोकतंत्र के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं। यही कहा जा सकता है कि जब तक सभी राजनीतिक दल और जनता दबाव नहीं बनाएगी। और लोकतंत्र के अन्य स्तंभ चुनाव आयोग, न्यायपालिका और मीडिया को आज़ाद नहीं किया जाएगा तब तक निष्पक्ष चुनाव की संभावना न के बराबर है। अब इन्हें आज़ाद कौन करेगा जब यह सब अन्य स्तंभ सत्ता के प्रभाव में हैं।
न्यायपालिका से भी उम्मीद लगातार कम होती जा रही है और अब तो आपको यह भी मालूम होगा कि चुनाव आयुक्त चुनने की प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को भी ख़त्म कर दिया गया है और चुनाव आयुक्त का चयन पूरी तरह से सरकार के हाथ में आ चुका है। हालांकि इससे पहले ही चुनाव आयोग की भूमिका पर लगातार सवाल उठ रहे थे अब तो चुनाव आयुक्त का चयन प्रधानमंत्री, उनके द्वारा नामित कैबिनेट के एक मंत्री और विपक्ष के नेता द्वारा ही होगा। जिसमें साफ है कि दो-एक से बहुमत सरकार ही चुनाव आयुक्त को चुनेगी। और वो कैसा और किसे आयुक्त चुनेगी यह बताने वाली बात नहीं है ।
इसलिए फिलहाल जनता की एकजुटता और ताकत पर ही भरोसा किया जा सकता है कि वो अपने इस लोकतंत्र को किसी तरह बचा ले।