नए पीनल कानून –
भारत को पुलिस राज्य में बदलने का एक भयावह प्रयास – चंडीगढ़ कांग्रेस
चंडीगढ़/संघोल-टाइम्स/केवल भारती/02 DEC.,2024- भारत में कई दशकों से लागू तीन पीनल कानून अर्थात् भारतीय दंड संहिता 1860, दंड प्रक्रिया संहिता 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 को बड़ी जल्दबाजी में बदल कर 01 जुलाई 2024 से तीन नए कानून जिनके नाम भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए) हैं, लागू कर दिए गए हैं। इन कानूनों के लागू होने से पहले चल रहे घटनाक्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि यह नए कानून संविधान विरोधी भाजपाई एजेंडे के दबाव में आनन फानन में तैयार किए गए हैं। तीनों दंड कानूनों का मसौदा देश के शीर्ष कानूनी विशेषज्ञों द्वारा नहीं बल्कि मोदी सरकार द्वारा नियुक्त एक पार्ट टाइम ड्राफ्टिंग कमेटी द्वारा तैयार किया गया है। इनको बनाने में कानून के विशेषज्ञों और जानकारों के बीच कोई गहन चर्चा नहीं की गई। विधि आयोग, जिसके सदस्यों में सेवानिवृत्त न्यायाधीश, प्रख्यात कानूनी विशेषज्ञ, बार काउंसिल के सदस्य और देश के शीर्ष अधिवक्ता शामिल हैं और जो कानूनी शोध के क्षेत्र में देश की सबसे महत्वपूर्ण संस्था है, को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया गया और दशकों से चल रहे उसके गहन शोध को खारिज कर दिया गया है। इसके बाद देश के पूरे आपराधिक न्यायतन्त्र को संचालित करने वाले इन महत्वपूर्ण कानूनों को संसद में चर्चा के लिए भी तभी लाया गया, जब स्पीकर ओम बिरला द्वारा विपक्षी सांसदों को आलोकतांत्रिक और अनैतिक तरीके से निलंबित किए जाने के कारण सभी विपक्षी सांसद सदन में अनुपस्थित थे। इन तीनों कानूनों के इस विचित्र तरीके से लागू कराने का सीधा मतलब है कि मोदी सरकार ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र में राजनीतिक और वैचारिक असहमति को कुचलने के लिए देश को एक पुलिस राज्य में बदलने के अपने भयावह लक्ष्य को पूरा करने में एक बड़ा कदम उठा लिया है।
इन नए दंड कानूनों को पढ़ने से पता चलता है कि मोदी सरकार की मंशा आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार करने की कतई नहीं थी। इसके विपरीत, सुधारों का बहाना बना कर सरकार ने बड़ी चालाकी से नए दंड कानूनों में कुछ कठोर और सख्त प्रावधान भी शामिल कर दिए, ताकि पुलिस और सुरक्षा बलों के माध्यम से आम जनता के साथ साथ राजनीतिक विरोधियों के लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों का हनन करने के भाजपाई एजेंडे को पूरा किया जा सके। इन थोड़े से कठोर प्रावधानों को छोड़कर बाकी 90 से 99 प्रतिशत कानून निरस्त किए गए पुराने कानूनों के मसौदे की हूबहू कॉपी करके उन्हें नए कानूनों के रूप में पेस्ट कर दिया गया है। बिना किसी शोध के कॉपी पेस्ट करने के इस घटिया काम करने के बाद ड्राफ्टिंग कमेटी ने नए दंड कानूनों में जोड़े गए कठोर प्रावधानों को बड़ी चालाकी से छिपाने की कोशिश की है। ऐसा करने के लिए नए कानूनों में शामिल एक हजार से अधिक धाराओं की संख्या बदलकर उन्हें न्यायाधीशों और वकीलों के लिए अत्याधिक जटिल और गुंझलदार बना दिया गया है। यदि सरकार की मंशा कानूनों में सही मायनों में सुधार करने की होती तो वह अनावश्यक भ्रम और अराजकता की स्थिति पैदा किए बिना पहले से मौजूद दंड कानूनों की कुछ धाराओं में आसानी से संशोधन कर सकती थी। पुराने कानूनों में नई धाराएं भी जोड़ी जा सकती थीं और संशोधनों के जरिए कुछ अवांछित धाराओं को हटाया भी जा सकता था। परन्तु इसके विपरीत सरकार ने नए कानूनों के मसौदौं में भ्रम और उलझन पैदा करके न केवल जजों और वकीलों के लिए अनावश्यक कठिनाइयाँ पैदा कर दी हैं, बल्कि सारे देश की न्यायिक प्रक्रिया को भी धीमा कर दिया है। इसके अलावा, गहन प्रशिक्षण देने के सरकारी दावों के बावजूद प्रांतीय पुलिस और जांच एजेंसियों को नए प्रावधानों को अच्छी तरह समझने में काफ़ी लंबा समय लगेगा।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि नए कानून लाने में सरकार का उद्देश्य आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार करना नहीं बल्कि कानून लागू करने वाली एजेंसियों को अथाह और बेलगाम शक्तियाँ प्रदान करना है। इन कानूनों के लागू होने के बाद हमारा देश एक पुलिस राज्य बनने की राह पर चल पड़ा है। यह बात भारतीय न्याय संहिता की नीचे लिखी केवल एक धारा को पढ़ने से ही स्पष्ट हो जाती है।
बीएनएस की धारा 152:- “जो कोई व्यक्ति मौखिक या लिखित शब्दों द्वारा, या संकेतों द्वारा, या दृश्य चित्रण द्वारा, या इलेक्ट्रॉनिक संचार द्वारा, या वित्तीय साधनों का उपयोग करके, या अन्यथा, उत्तराधिकार या सशस्त्र विद्रोह या विध्वंसक गतिविधियों को उत्तेजित करता है या उत्तेजित करने का प्रयास करता है, या अलगाववादी गतिविधियों की भावना को बढ़ावा देता है या भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता को खतरे में डालता है, या ऐसा कोई कृत्य करता है या करने की कोशिश करता है, तो उसे आजीवन कारावास या सात साल तक के कारावास से दंडित किया जाएगा और इसके साथ जुर्माना भी देना होगा”।
हालांकि इस धारा के साथ एक स्पष्टीकरण भी दिया गया है, लेकिन शायद यह राजनीतिक दबाव के कारण अति उत्साह में आए पुलिस कर्मियों को उक्त धारा के प्रावधानों की गलत तरीके से व्याख्या करने और भाजपा की सांप्रदायिक और विभाजनकारी नीतियों का विरोध करने वाले निर्दोष लोगों को फंसाने से रोकने में कारगर न हो पाए। बीएनएस की उपरोक्त धारा भारतीय दंड संहिता की अब हटाई जा चुकी धारा 124-ए की जगह पर लाई गई है। धारा 124-ए के अन्तर्गत राजद्रोह कानून को ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाया गया था, जिसे 1962 में केदारनाथ मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने काफी हद तक निष्प्रभावी कर दिया था । इस फ़ैसले में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि “वास्तविक हिंसा या हिंसा के लिए उकसाना और अव्यवस्था पैदा करने का इरादा या प्रवृत्ति” राजद्रोह के अपराध की व्याख्या करने के लिए आवश्यक तत्व थे। इसलिए अपराधी की ओर से “स्पष्ट और वर्तमान खतरे और बुरे इरादों” का पाया जाना, जिसके कारण वास्तविक हिंसा हुई या हिंसा भड़काने के लिए उकसाया जाना यदि प्रथम दृष्टया साबित नहीं होता है तो राजद्रोह का अपराध नहीं बनता है। केवल मौखिक रूप से बोले शब्दों के आधार पर किसी को आईपीसी की इस धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि सुप्रीम कोर्ट के इन स्पष्ट दिशा-निर्देशों के बावजूद मोदी सरकार ने कई बेगुनाह लोगों को राजनीतिक असहमति व्यक्त करने के आरोप में आईपीसी की धारा 124-ए के तहत जेल में डाल दिया। उदाहरण के तौर पर 2021 में एक मशहूर पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ सिर्फ़ इसलिए राजद्रोह का मुकद्दमा दर्ज कर लिया गया क्यों कि वह मोदी सरकार के कोविड 19 से निपटने के तरीके की आलोचना कर बैठे। तीन कृषि कानूनों की आलोचना करने पर भी पुलिस ने कुछ लोगों पर यह मामला दर्ज किया था। आखिरकार जब आईपीसी की धारा 124-ए का दुरुपयोग नहीं रुका, तो सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में वोम्बटकेरे मामले में एक कठोर फ़ैसला सुना दिया। न्यायालय ने अभूतपूर्व निर्देश जारी करते हुए कहा कि जब तक राजद्रोह कानून में संशोधन नहीं हो जाता और भारत सरकार इस पर स्पष्ट रुख नहीं अपना लेती, तब तक भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के तहत कोई भी मुकद्दमा दर्ज नहीं किया जाएगा और इस धारा के तहत सभी लंबित मुकद्दमें, अपील और कार्यवाही स्थगित रहेंगी तथा सभी राज्यों को इस धारा का दुरुपयोग न होने देंने का निर्देश भी जारी किया गया।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद जब आईपीसी की धारा 124-ए के तहत राजद्रोह कानून मृतप्राय हो गया तो उसके बाद मोदी सरकार की हठधर्मिता देखिए। उच्चतम न्यायालय के उपर्युक्त आदेश को नकारने के उद्देश्य से इस सरकार ने भारतीय न्याय संहिता में धारा 152 के रूप में एक बहुत कठोर और सख्त कानून लागू कर दिया, जिसका सुरक्षा एजेंसियों द्वारा दुरुपयोग किए जाने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करने का साहस रखने वाले लाखों लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और उनके दूसरे संवैधानिक अधिकार बीएनएस की धारा 152 के चलते सुरक्षा एजेंसियों के हाथों हमेशा खतरे में रहेगें। ऐसी स्थिति हमारे लोकतंत्र, हमारी स्वतन्त्रता और संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के लिए भी ख़तरे की एक घन्टी है।
कई कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि बड़े पैमाने पर कॉपी-पेस्ट किए गए नए दंड कानूनों में प्रावधानों की नम्बरिंग में पूर्ण बदलाव और उनके बीच कुछ कठोर प्रावधानों को शामिल करने से पैदा हुआ भ्रम देश की आपराधिक न्याय प्रणाली को पूरी तरह से पटरी से उतार सकता है। ऐसा होने से न्याय प्रशासन अधिक जटिल एवं धीमा हो जाएगा। इसके अलावा, नए कानूनों में कई और खामियां हैं, जिन्हें दूर करने की जरूरत है। जैसे कि पुलिस जांच का समय निरस्त आईपीसी में दिए गए 15 दिनों से बढ़ाकर नए बीएनएस मेंअब 90 दिन कर दिया गया है। यह पुलिस के हाथों में निरंकुश अधिकार देने के बराबर है। इसके साथ, सामुदायिक सेवा के रूप में एक नई सज़ा शुरू की गई है, परन्तु कहीं भी यह परिभाषित नहीं किया गया है कि सामुदायिक सेवा में क्या क्या शामिल होगा। इसलिए, यह देश के हित में है कि सरकार विपक्ष के नेताओं के साथ बैठकर 30 जून तक वाली यथास्थिति बहाल करने के बाद इन नए दंड कानूनों की कमियों पर विचार-विमर्श करे। वर्तमान सरकार को यह समझना चाहिए कि जल्दबाजी में बनाए गए इन दंडात्मक कानूनों को जारी रखने से भारत के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों को अकथनीय नुकसान पहुंच सकता है और देश की न्याय व्यवस्था पर असहनीय दबाव पड़ सकता है।
राजीव शर्मा
प्रवक्ता, चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी
